भरत जी अयोध्या पहुँचे, अयोध्या में श्मशान जैसा सन्नाटा था। किसी नगरवासी ने भरत जी की ओर सीधे नहीं देखा।
आज तो सब भरत जी को संत मानते हैं, पर उस समय सब के मन में उनके लिए संशय था।
यही संसार की रीत है, जीवित संत को पहचान लेना हर किसी के बस की बात नहीं, क्योंकि संत चमड़े की आँख से नहीं, हृदय की आँख से पहचाना जाता है। पर वह है कितनों के पास? हाँ! उनके जाने के बाद तो सब छाती पीटते हैं। पर तब तक देर हो जाती है। जो चला गया वो चला गया।
भरत जी सीधे कैकेयी के महल में गए, क्योंकि राम जी वहीं मिलते थे। कैकेयी जी आरती का थाल लाई हैं, भरतजी पूछते हैं, भैया राम कहाँ हैं? पिताजी कहाँ हैं? काँपती वाणी से उत्तर मिला। वही हुआ जिसका कैकेयी जी को भय था। भरत जी की आँखों से दो वस्तु गिर गई, एक वो जो फिर गिरते ही रहे, आँसू। और दूसरी वो जो फिर नजरों में कभी उठ नहीं पाई, कैकेयी जी।
संत की नजरों से गिर जाना और जीवन नष्ट हो जाना, एक ही बात है।
भगवान के राज्याभिषेक के बाद की घटना है, कैकेयी जी राम जी के पास आईं, बोलीं- राम! मैं कुछ माँगूगी तो मिलेगा?
राम जी की आँखें भीग आईं, कहने लगे, माँ! मेरा सौभाग्य है, कि आपके काम आ सकूं, आदेश दें।
कैकेयी जी ने कहा, हो सके तो एकबार भरत के मुख से मुझे "माँ" कहलवा दो।
राम जी ने तुरंत भरत जी को बुलवा भेजा। भरत जी दौड़े आए, दरबार में कदम धरते ही कनखियों से समझ गए कि वहाँ और कौन बैठा है। तो कैकेयी जी को पीठ देकर खड़े हो गए।
राम जी ने पूछा, भरत! मेरी एक बात मानोगे भाई?
भरत जी के प्राण सूख गए, गला रुंध गया, परीक्षा की घड़ी आ गई। बोले, मानूँगा भगवान, जो आदेश देंगे मानूँगा, पर एक बात को छोड़ कर।
राम जी ने पूछा, वह क्या भरत?
भरत जी कहते हैं, इन्हें माँ नहीं कहूँगा।
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